माँ का हाथ
जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पर,
अँधेरा रहता था अभी,
कुछ street lights जलती थी,
पर कुछ ....
कुछ कुत्ते भौंकते रहते ..
कुछ चाय वाले अपनी अंगीठी तैयार करते,
कोयला डालते, आग लगाते|
कुछ newspaper वाले साइकिल से जाते रहते...
कुछ और औरतें भी, डोलची ले के जाती रहती ,
जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पर|
पांच बार डुबकी लगाता मैं, माँ का हाथ पकड़े ,
slip होता था पैर , पत्थरों पर लगे काई से..
डर लगता था तेज बहती लहरों में,
पर सारी डुबकी लगाता जाता मैं ...
माँ का हाथ पकड़े ... गंगा किनारे घाट पर|
मुझे नहला माँ बैठा देती, सीढियों पर|
सुबह की ठण्ड हवा से, मैं जब काँपता,
तो एक बूढी औरत थी, जो अपना शाल निकाल मुझे ओढा देती..
याद है मुझे वो कार्तिक नहाना|
चुपके चुपके सुबह होती और सूरज अपने daily routine में निकलता रहता.
जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पे ....
अब डर लगता है, तो माँ हाथ बढाती है ...
पर नहीं पकड़ता मैं, अब हाथ, माँ का ..
slip करता है पैर पत्थरों पर लगी काई से,
ठण्ड में सिकुड़ता रहता हूँ पर नहीं ओढ़ता उस बूढी औरत का दिया शाल ....
अब खुद पर बहूत विश्वास करने लगा हूँ...
माँ का हाथ छोड़ जब दुनिया को पकड़ना चाहा तो कोई पास ना दिखा ...
ठंडी बर्फीली हवा बहती रहती है रास्तों पर...
बहूत ऊंचाई पर है मंजिल|
slip करती है सीढियाँ पत्थरों पर लगे काई से,
चलते जा रहा हूँ अकेले अकेले...
गिरूँगा किसी दिन
माँ ने बोला था, हाथ मत छोड़ना ...
कस के पकड़ो ...
बदमाशी मत करो ...
सीढियों पर बहूत काई है....
धीरे धीरे डुबकी लगाते जाओ...