Sunday, January 22, 2012

माँ का हाथ


माँ का हाथ 
जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पर,

अँधेरा रहता था अभी,

कुछ street  lights जलती थी,

पर कुछ ....

कुछ कुत्ते भौंकते  रहते ..

कुछ चाय वाले  अपनी अंगीठी तैयार करते,

कोयला डालते,  आग लगाते|

कुछ newspaper वाले साइकिल से जाते रहते...

कुछ और औरतें भी, डोलची ले के जाती रहती ,

जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पर|

पांच बार डुबकी लगाता  मैं, माँ का हाथ पकड़े ,

slip  होता था पैर , पत्थरों पर लगे काई  से..

डर लगता था तेज बहती लहरों में,

पर सारी डुबकी लगाता जाता मैं ...

माँ का हाथ पकड़े ... गंगा किनारे घाट पर|

मुझे नहला माँ बैठा देती, सीढियों पर|

सुबह की ठण्ड हवा से, मैं जब काँपता,

तो एक बूढी औरत थी, जो अपना शाल निकाल मुझे ओढा देती..


याद है मुझे वो कार्तिक नहाना|

चुपके चुपके सुबह होती और सूरज अपने daily routine में निकलता रहता.

जब भी जाता मैं, माँ का हाथ पकड़े गंगा किनारे घाट पे ....

अब डर लगता है, तो माँ हाथ बढाती है ...

पर नहीं पकड़ता मैं, अब हाथ,  माँ का ..

slip करता है पैर पत्थरों पर लगी काई से,

ठण्ड में सिकुड़ता रहता हूँ पर नहीं ओढ़ता  उस बूढी औरत का दिया शाल ....

अब खुद पर बहूत विश्वास करने लगा हूँ...

माँ का हाथ छोड़ जब दुनिया को पकड़ना चाहा तो कोई पास ना दिखा ...

ठंडी  बर्फीली हवा बहती रहती है रास्तों पर...

बहूत ऊंचाई पर है मंजिल|

slip करती है सीढियाँ पत्थरों पर लगे काई से,

चलते  जा रहा हूँ अकेले अकेले...

गिरूँगा किसी दिन 

माँ ने बोला था,       हाथ मत छोड़ना ...

कस के पकड़ो ...

बदमाशी  मत करो ...

सीढियों पर बहूत काई  है....

धीरे धीरे डुबकी लगाते जाओ...

Monday, December 12, 2011

आग की राख़


आग  की  राख़

बुझी  हुई  आग  की  राख़  में  ढूंढ  रहा  हूँ,  
एक  आग,
बुझ  गई  है  आग,
फिर  भी  राख़  में  हाथ  डाले,
गर्म  सोच  के,   
 बैठा  हूँ,
हाथ  बढाता  हूँ
पर  अब  तो  राख़  भी  ठण्ड  हो  गई  है,
दिमाग  ये  बात  समझना  नहीं  चाहता,
और  बार  बार  ये  कह देता है,
थोड़ा  और  खोजो,
थोड़ा  और  खोजो,
अन्दर  अभी  कुछ  गर्म  होगा,
इस सिकुड़ती,
कड़कती  ठण्ड  में,
अब  गर्म  राख़ की  खोज  में,
हाथ  अन्दर  करते  करते,
जमीं  की  ठंडक  जब  मिलने  लगी ...
तो  सोचता  हूँ,
अगर ,
कँही  गर्म  राख़  मिल  जाए  तो  दो  मुठ्ठी  खा  लूँ
कुछ  देर  शायद  पेट  में  गर्म  रह  जाए ...

Wednesday, November 30, 2011

मेरे वो खिलौने

मेरे  वो  खिलौने

मेरे  वो  खिलौने,  मेरे  वो  खिलौने,
कुछ  टूटे  कुछ  फूटे, मेरे  वो  खिलौने,

वो  मिट्ठू  वो  चिड़िया,
वो  भारी  से  मिट्टी  के  बूढे और  बुढ़िया,
वो  मिट्टी  की  मछली  और  मिट्टी  का  शेर,
वो  मिट्टी  की  बकरी  और  मिट्टी  का  भेड़,
सभी  मर  चुके  हैं, सभी  खो  चुके  हैं,
पर,  अब  वो सब, पुराने  से, धुल  में  लिपटे  हुए,
मेरे  किसी  दुछ्त्तिये  पे,  एक  कपड़े  के  झोले  में  पड़े  होंगे,
अब    वो  चल  पाते  हैं    दौड़  पाते  हैं,
गम्भीर  हो  गए  हैं  सब  के  सब,
समझदार  हो  गए  हैं  सब  के  सब,
बैठे  रहते  हैं  उस  पूराने  झोले  में, पर  कभी  जब  उस  दुछत्तिये  में  झाको  और  याद  करो  तो,
उफ्फ्फ्फफ्फ्फ्फ़......
क्या  जंगल मचा रहता  था  मेरे  आँगन  में,
वो बंदर  का  कूदना, वो  घोड़े  का  दौड़ना,
वो  खरगोश  का, शेर  को  मार  भागना,
वो  मछली  की  आवाजें ,
वो  मिट्ठू  की पप्पी,
वो  बिल्ली  को  टूटे  बिस्कुट  खिलाना,
तब वो सब चलते  थे, सब बोलते  थे, सब  हँसते भी थे,
पर  वो  सब  कुछ, अब  बंद  रह  गया  है  उस  झोले  में,
नहीं  तो, अब  वो  कैसे  खरगोश  को शेर से जीताऊं,
अब  कैसे  मछली  की  आवाजें  निकालूँ,  
वो  सब  तो  अब  बेवकूफी  लगती  है,
नहीं  तो  किसने  मछली  की  आवाजें  सुनी थी,
और कौन सी  बिल्ली  ने  बातें  करी थी,
तब  वो  सब कुछ  सही  लगता  था,
एक  दुनिया  जो  अपनी  बसाई  हुई  थी,
एक महफ़िल जो अपनी सजाई हुई थी,
इन  समझदारो  की  दुनिया  में  क्यों  रह  रहा  हूँ,
अब  सोचो  तो  लगता  है  की, वो  तो  बचपन  था,
याद  करो  तो  खुद  पे  हँसी आती  है,
पर  कँही    कँही,  आज  उस  दुछत्तिये  पे  बैठा,
मुझे  देख, बचपन  हँसता  ही  होगा|