उस आधी चिठ्ठी में तुमने ऐसा क्या लिखा था
जो अभी भी तुमने सम्भाल के रखा है . ....
रोज़ उठा के उसे पढ़ती हो, आँख से छूती हो ...
और फिर से उसे अपनी तकिये के नीचे रख देती हो ...
उस तकिये पे मेरा नाम बड़ा अच्छा काढ़ा है तुमने ...
जब तुम तकिये पे सर रख के सो जाती .....
और मैं तुम्हारे ख्यालों में अपनी साइकिल से आता ....
खाली रास्तों पे जब हम दूर तक जाते और जब कभी थक जाते .....
तो किसी कुंवे के पास बैठ के अपनी परछाईयाँ देखा करते ....
सुबह में जब कोई साइकिल ले के आता और तुम्हारी नींद खुल जाती
तो तुम्हे ऐसा क्यों लगता की मैं आया हूँ ....
सच बोलो वो सपना तुमने भी देखा क्या ?...
फिर उठ के ये देख लेती की चिठ्ठी तो वँही है ना ...
शब्द गीनती लाइनों की ,कि कुछ कम तो नहीं हुवे हैं ....
उस आधी चिठ्ठी में अब कुछ और लिखो ...
कुछ उल्टी सीधी बात कहो ...
कुछ भूली बिसरी बात कहो ...
कुछ मीठे पल , कुछ कड़वे पल ...
जब हम साथ बैठ के मुन्गफलियाँ खाया करते थे ...
और मैं तुम्हे किस्से कह के, कहानियाँ सुनाया करता था ......
और तुम अजीब से एक्सप्रेसन के साथ सुना करती थी ....
वो सब मनगढ़न थी .... मैं तब भी फ़िक्सन कहता था ...
अभी भी फ़िक्सन लिखता हूँ ....
मेरी कलम झूट लिख के पैसे कमाती है ....
पर तुम तो सच कहती थी ...सच लिखती थी ...
तो आज फिर से लिखो ...वो दिन जब मैं झूट लिखा करता था ..
तुम्हारी कलम कि दवात सूख तो नहीं गई ....
मैंने पानी गरम किया है लाओ अपनी श्याही बनाये पक्की वाली ....
फिर आओ मेरे पास वो चिठ्ठी ले के कभी ...
फिर कुछ तुम लिखो कुछ हम लिखे ...
और उस आधी चिठ्ठी में कुछ और सफ़े जोड़े .....